27 मई 1985 को दिल्ली में जन्मे चिराग़ पत्रकारिता में स्नातकोत्तर करने के बाद ‘हिन्दी ब्लॉगिंग’ पर शोध कर रहे हैं। ब्लॉगिंग जैसा तकनीकी विषय अपनी जगह है और पन्नों पर उतरने वाली संवेदनाओं की चुभन और कसक की नमी अपनी जगह। कवि-सम्मेलन के मंचों पर एक सशक्त रचनाकार और कुशल मंच संचालक के रूप में चिराग़ तेज़ी से अपनी जगह बना रहे हैं।

नई पीढ़ी का सटीक प्रतिनिधित्व कर रहे चिराग़ को पढ़ना, वीणा के झंकृत स्वरों को अपने भीतर समेटने जैसा है। इस रचनाकार का पहला काव्य-संग्रह ‘कोई यूँ ही नहीं चुभता’ जनवरी 2008 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त चिराग़ के संपादन में ‘जागो फिर एक बार’; ‘भावांजलि श्रवण राही को’ और ‘पहली दस्तक’ जैसी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही में चिराग़ की रचनाएँ चार रचनाकारों के एक संयुक्त संकलन ‘ओस’ में प्रकाशित हुई हैं। प्रस्तुत है आज इनकी एक भावात्मक कविता - 



अनपढ़ माँ

() चिराग़ जैन

चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से
दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ”नौ-बाई-चार” की
कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
…लेकिन अच्छी तरह जानती है

कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व निकालना
उसके शब्दों में ‘स्यापा’ है
…क्योंकि उसने मेरी छाती को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है
वह नहीं समझ सकती
कि ‘ए’ को
‘सी’ बनाने के लिए
क्या जोड़ना
या घटाना होता है
…लेकिन
अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम
कम करवाने के लिए
कौन सा फॉर्मूला
अपनाना होता है।

मुद्दतों से
खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए
सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर
ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
…उसने तो
केवल ख़ुश्बू सूंघकर बता दिया है
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।

घर की
कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने
राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के
अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों
घर की आमदनी
और पन्सारी की
रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
…लेकिन
अर्थशास्त्र का
एक भी सिद्धान्त
कभी उसकी समझ में
नहीं आया है।

वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
….स्वर साधना के लिए

वह संगीत का
कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
…लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे
कि भारत पर
कब, किसने आक्रमण किया
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुग़ल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में
अपने साथ
क्या लाई थी
लेकिन
हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ
कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में
किस पार्टी के निशान पर
मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय
हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीपावली पर
कौन-सी साड़ी जानी है।

मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का
चेहरा पढ़ लेती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
बात की दिशा
मोड़ सकती है
झगड़े की सम्भावनाओं को
भाँप कर
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर
छोड़ सकती है
दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को
मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में
रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुश्बू से
सुबह-शाम
सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो
सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
रात भर सो नहीं पाती है।

सच!
कोई भी माँ
अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि
ढेर सारी डिग्रियाँ
बटोरने के बावजूद
बेटियों को
उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी
कैसे चलानी होती है।
() () ()
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5 comments:

पूर्णिमा ने कहा… 24 मई 2010 को 12:37 pm बजे

कविता अच्छी लगीं.

mala ने कहा… 24 मई 2010 को 12:50 pm बजे

बहुत ही आकर्षक कविता,अच्छी लगीं !

गीतेश ने कहा… 24 मई 2010 को 3:48 pm बजे

सार्थक कविता...हार्दिक बधाई।

अविनाश वाचस्पति ने कहा… 24 मई 2010 को 4:14 pm बजे

प्रत्‍येक मामूली सी बात में अभिव्‍यक्ति के चिराग जला दिए हैं चिराग भाई ने अपनी हृदयस्‍पर्शी कविता में। मां के रिश्‍ते की सुखद अद्भुत बुनावट बिना किसी करवट के दिल में घर कर जाती हैं।

प्रज्ञा पांडेय ने कहा… 24 मई 2010 को 9:20 pm बजे

माँ को उतार दिया आपने .. सूती तुड़ी मुड़ी सारी पहने नरम नरम आँखों वाली अम्मा ..आँगन धोती
परोसती रोटी बनाती प्यार भरी अम्मा !! अच्छी लगीं
माँ!!!

 
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