आज सुप्रसिद्ध कवि/गज़लकार/चिट्ठाकार श्री दिगंबर नासवा जी उपस्थित हैं अपनी एक ग़ज़ल लेकर, अपनी ग़ज़लों के बारे में उनका कहना है कि "प्रवासी हूँ तो प्रवासी मन का दर्द कभी कभी कागज़ पर उतर आता है ... इस महोत्सव के लिए मेरी ग़ज़ल प्रस्तुत है .... सबको बहुत बहुत शुभकामनाओं सहित .... !'



ग़ज़ल

न पनघट न झूले न पीपल के साए
शहर काँच पत्थर के किसने बनाए

मैं तन्हा बहुत ज़िंदगी के सफ़र में
न साथी न सपने न यादों के साए

वो ढाबे की रोटी वही दाल तड़का
कभी तो सड़क के किनारे खिलाए

वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना
नही भूल पाता कभी वो भुलाए

वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा
मेरा बचपना भी कभी लौट आए

मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी
मेरी माँ की लोरी कोई गुनगुनाए

मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए

() दिगंबर नासवा

परिकल्पना पर पुन: वापस जाएँ 

7 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा… 3 मई 2010 को 4:50 pm बजे

मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी
मेरी माँ की लोरी कोई गुनगुनाए

मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए
Waah, Behad khusoorat panktiyaan !

Shekhar Kumawat ने कहा… 3 मई 2010 को 7:00 pm बजे

bahut khub

shandar prastuti

अमिताभ मीत ने कहा… 3 मई 2010 को 8:11 pm बजे

मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी
मेरी माँ की लोरी कोई गुनगुनाए

मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए

बेहतरीन ग़ज़ल है ... वाह !!

Arshad Ali ने कहा… 3 मई 2010 को 8:54 pm बजे

naswa sahab ka mai kayal hun...unka ye gazal man me utar gaya.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा… 4 मई 2010 को 3:28 pm बजे

वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा
मेरा बचपना भी कभी लौट आए

बहुत खूबसूरत ख़याल ....सुन्दर ग़ज़ल

Himanshu Pandey ने कहा… 27 मई 2010 को 7:10 am बजे

"वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना
नही भूल पाता कभी वो भुलाए"..
अविस्मरणीय क्षणों को पिरो दिया इन पंक्तियों ने !

आभार ।

 
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