जीवन-वृत्त /नाम : अमित कुमार यादव /जन्म : २४ सितम्बर १९८६, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ० प्र०)/शिक्षा : इलाहाबाद वि”वविद्यालय से स्नातक एवं तत्प”चात इंदिरा गांधी नेशनल ओपेन यूनिवर्सिटी से एम०ए० (लोक प्रकाशन),विधा : मुख्य रूप से लेख /प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं-हिन्दुस्तान, आज, अमर उजाला काम्पैक्ट, समरलोक, सबके दावेदार, सेवा चेतना, जीरो टाइम्स इत्यादि में रचनाओं का प्रकाशन । सम्मान-पुरस्कार : आउटलुक पत्रिका द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में पुरस्कृत। प्रस्तुत है इनका एक आलेख:

जंग-ए-आजादी में क्रांतिकारियों की भूमिका

१८५७ की क्रान्ति भारतीय इतिहास की एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। इस क्रान्ति ने लोगों में गुलामी की जंजीरंे तोड़ने का साहस पैदा किया। यद्यपि अंग्रेजी हुकूमत ने इस क्रान्ति से निकली ज्वाला पर काबू पा लिया और शासकीय  ढाँचे में आधारभूत परिवर्तन करके भारत को सीधे ब्रिटि”ा क्रउन के नियंत्रण में कर दिया, पर यह कदम लोगों के अन्दर पनप रहे स्वाधीनता के ज्वार को नहीं खत्म कर पाया। देश  की तरुणाई अँगड़ाई लेने लगी और ऐसी रा’ट्रीयता की भावना पैदा की जिसने क्रान्तिकारी गतिविधियों को बढ़ावा दिया और समूचे रा’ट्र में चेतना की लहर फैलायी। १८५७ की क्रान्ति प”चात वासुदेव बलवन्त फड़के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने स”ास्त्र क्रान्ति द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालकर स्वराज्य प्राप्ति का सपना देखा। अंगे्रजी सरकार की भयग्रस्त स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि फड़के का बलिदान १७ फरवरी १८८३ को अदन जेल में हुआ, लेकिन दे”ा की जनता को इसकी सूचना एक माह बाद दी गयी।



१८८५ में ए०ओ० ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना लाला लाजपत राय के मत में अंग्रेजी राज्य की रक्षा हेतु अभय कपाट के रूप में किया, पर धीरे-धीरे कांग्रेस भारत में स्वतंत्रता संघर्’ा का पर्याय बन गयी। १८८५-१९०५ के दौर को भारतीय रा’ट्रीय आन्दोलन में उदारवादियोंं का काल माना जाता है, जिनकी धारणा भी कि अंग्रेज मूलत: सच्चे और न्यायप्रिय हैं। उन्हें लगता था कि भारत में अब तक जो भी उन्नति हुई है या प्रगति”ाील कदम उठाये गये हैं, वह सब अंग्रेजों की देन है। उदारवादियों का मानना था कि यदि अंग्रेजों के समक्ष ठीक प्रकार से अपनी माँगे रखी जायें तो वह अव”य मदद करेंगे। मूलत: उदारवादी आदर्”ाोन्मुख यथार्थवादी थे और समय की आव”यकतानुसार उन्होंने लोगों में दे”ा सेवा और दे”ा भक्ति की भावना जागृत करते हुए राजनैतिक जगजागरण किया। गोपालकृ’ण गोखले द्वारा स्थापित ‘सर्वेन्ट्स आWफ इण्डिया सोसायटी’ (१९०५) जैसी संस्थायंे इसी दौर की देन हंै। इसी दौर में १८९३ में स्वामी विवेकानन्द ने ”िाकागो में अपना प्रखर आध्यात्मिक भा’ाण दिया, तो १८९३ में ही एनी बेसेन्ट भारत आयीं। १८९३ में ही २४ वर्’ाीय गाँधी जी अब्दुल्ला सेठ नाम एक व्यापारी के मुकदमे में दक्षिण अÝीका गए जहाँ उन्होंने रंगभेद जैसी बुराई को नजदीक से महसूस किया और कालान्तर में भारत लौटकर रा’ट्रीय आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी।


रा’ट्रीय आन्दोलन में लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति का प्रमुख स्थान है। बाल गंगाधर तिलक (१८५६) को छोड़ दंे तो लाला लाजपत राय (१८६५) व विपिन चंद पाल (१८५८) का जन्म १८५७ की क्रान्ति के बाद हुआ था। लोकमान्य तिलक ने जहाँ ‘मराठा’ और ‘केसरी’ पत्रोंं द्वारा नवजागरण प्रारम्भ किया वहीं गण”ाोत्सव व ”िावाजी उत्सव के माध्यम से रा’ट्रवादी भावनाओं को उभारा। १९०६ में तिलक ने नारा दिया- "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेगें।" ‘”ोर-ए-पंजाब’ नाम से म”ाहूर लाला लाजपत राय का कृ’ाकों, मजदूरों और देे”ा के क्रान्तिकारियों से घनि’ठ सम्बन्ध था। जुझारू प्रवृत्ति के लाला लाजपत राय ने नौजवानों में दे”ाभक्ति की भावना जागृत की। १९२८ में साइमन कमी”ान का विरोध करते हुये उन्होंने लाठियाँ भी खायीं। विपिन चंद्र पाल ने बंग-भंग और उसके विरोध में हुए बहि’कार व स्वदे”ाी आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी। लाल-बाल-पाल के चलते ही कालान्तर में महारा’ट्र, पंजाब और बंगाल भारतीय रा’ट्रीयता के केन्द्र बन गये। अरविन्द घो’ा भी इस दौर के प्रमुख रा’ट्रवादी नेताओं में से थे। अरविन्द घो’ा ने कैम्ब्रिज वि”वविद्यालय में ”िाक्षा ग्रहण करते समय ही यह संकल्प लिया था कि मैं अपने दे”ा भारत को आजाद कराÅँगा। इसी भावना से प्रेरित होकर वह सिविल सर्विस की परीक्षा में घोड़े की सवारी वाले इम्तिहान में “ाामिल नहीं हुये। ‘वन्देमातरम्’ और ‘युगान्तर’ पत्रों के माध्यम से उन्होंने नवयुवकों में क्रान्ति की अलख जगायी। नतीजन, अलीपुर बम केस में उनको एक वर्’ा का कठोर दण्ड देकर कारावास में डाल दिया गया। बाद में अरविन्द घो’ा योग साधना व अध्यात्म चिन्तन में लीन हो गये। विनायक राव दामोदर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ व ‘मित्र मेला’ जैसी क्रान्तिकारी संस्थाओं के माध्यम से जन-जन में क्रान्ति की अलख जगायी। विदे”ाी वस्त्रों की होली जलाकर सावरकर ने स्वदे”ाी भावना को बढ़ावा दिया। सावरकर सम्भवत: प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विदे”ाी वस्त्रों की होली जलायी और वे प्रथम विद्यार्थी थे, जो सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय से दे”ाभक्ति के कारण नि’कासित किये गये थे। बैरिस्टरी पास करने के बावजूद दे”ाभक्ति के कारण बैरिस्टरी की उपाधि उन्हें नहीं दी गयी तथा बी०ए० की डिग्री भी स्थगित कर दी गयी। उनकी चर्चित पुस्तक ‘द इण्डियन वार आWफ इन्डिपेन्डेंस’ प्रका”ान से पूर्व ही अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त कर ली गयी। उच्च ”िाक्षा हेतु इंग्लैण्ड जाकर सावरकर ने वहाँ भी भारतीयों में क्रान्ति की आग प्रज्वलित की। इस दौरान इंग्लैण्ड में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जलयान द्वारा जब उन्हें बड़ी निगरानी के साथ भारत लाया जा रहा था तो अपने जीवन की चिन्ता न करते हुये सावरकर समुद्र में कूद गये, परन्तु Ýांसीसी तट पर Ýांस की पुलिस ने उन्हें पकड़कर फिर से अंग्रेजी हुकूमत को सौंप दिया। कड़े पहरे में भारत लाकर नासिक ‘ाडयंत्र केस में उन्हें काला पानी की सजा दी गयी पर सावरकर यातनाओं के बावजूद कभी नहीं झुके। सावरकर के भाई नारायण सावरकर ने भी भारत की क्रान्ति के लिए कार्य किया और दे”ाभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना के कारण नासिक के जज जैक्सन ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर ८ जून १९०९ को दे”ा निर्वासन पर काले पानी का दण्ड दे दिया। यद्यपि इस दण्ड के विरोध में ‘अभिनव भारत’ संस्था के नवयुवक अनंत कान्हरे ने २१ दिसम्बर १९०९ को जैक्सन को गोली मार दी, जिस पर अंग्रेजी हुकूमत ने नासिक ‘ाडयंत्र अभियोग चलाकर अनंत कान्हरे व उसके अन्य साथियों को मृत्यु दण्ड दे दिया।


१९०५-१८ के दौर को भारतीय रा’ट्रीय आन्दोलन में उग्र रा’ट्रवादी आन्दोलन के रूप में जाना जाता है। १८९६ में अबीसीनिया (इथोपिया) की इटली पर विजय व १९०४-०५ में एक छोटे से दे”ा जापान की एक वि”ााल दे”ा रूस पर विजय से भारतीयों में उत्साह का संचार हुआ और रा’ट्रीयता की भावना जगी। लार्ड कर्जन की ‘बाँटो और राज करो’ नीति के तहत १९०५ में बंग-भंग की घो’ाणा के विरूद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी। १६ अक्टूबर १९०५ को पूरे बंगाल में ‘”ाोक दिवस’ के रूप में मनाने की घो’ाणा की गई। इस अवसर पर हिन्दू और मुसलमानोंं ने एक-दूसरे को राखी बाँधकर एकता का अहसास कराया तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आमार सोनार बंगला’ गीत लिखा। स्वदे”ाी, बहि’कार व नि’िक्रय प्रतिरोध के माध्यम से बंग-भंग का कड़ा विरोध किया गया। इस दौर की प्रमुख घटनाओं में १९०७ के सूरत अधिवे”ान में कांग्रेस का विभाजन और १९१६ में पुन: एकजुट होना रहा। १९१६ में ही एनी बेसेंट ने आयरि”ा होमलीग की तर्ज पर भारत में होमरूल लीग की स्थापना की। तिलक ने भी पूना में ‘होमरूल लीग’ स्थापित की।


१९०५ के बाद क्रान्तिकारी गतिविधियों में काफी तेजी से वृद्धि हुयी। बंग-भंग विरोधी आन्दोलन, जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, पंजाब में मार्”ाल लॉ और असहयोग आन्दोलन के एकाएक वापस लेने जैसी घटनाओं ने क्रान्तिकारी गतिविधियों को काफी प्रोत्साहन दिया। इस दौर पर लोकमान्य तिलक ने लिखा था कि -"भारत में बम के आगमन से भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल गया।" बंगाल में पी०मित्रा ने १९०५ में ‘अनु”ाीलन समिति’ संस्था गठित की जिससे अरविन्द घो’ा, बरिन्द्र कुमार घो’ा, अविना”ा भट्टाचार्य व भूपेन्द्र नाथ दत्त जैसे क्रान्तिकारी जुड़े थे। बरिन्द्र कुमार घो’ा व भूपेन्द्र नाथ दत्त ने अगले ही वर्’ा १९०६ में ‘युगान्तर’ पत्र निकाला उसका उद्दे”य दे”ा के नौजवानों को स”ास्त्र क्रान्ति की ओर प्रेरित करना था। भारत में यूरोपियों की प्रथम राजनैतिक हत्या का उल्लेख सर्वप्रथम १८९७ में मिलता है, जब २२ जून को पूना के चापेकर बन्धुओं ने प्लेग समिति के अध्यक्ष श्री रैण्ड और ले० एमस्र्ट को मार गिराया। यद्यपि चापेकर बन्धुओं को फांसी हो गई, पर १९०५ के बाद ऐसी गतिविधियों में काफी बढ़ोत्तरी हुई। क्रान्तिकारियों ने ६ दिसम्बर १९०७ को बंगाल के गवर्नर की गाड़ी को उड़ाने की असफल को”िा”ा की तो २३ दिसम्बर १९०७ को ढाका के मजिस्ट्रेट को फरीदपुर रेलवे स्टे”ान पर गोली मार दी गई। ३० अप्रैल १९०८ को मुजफ्फरपुर (बिहार) के बदनाम जज किंग्सफोर्ड को खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी ने बम से मारने का असफल प्रयास किया पर उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं अपितु श्रीमती केनेडी व उसकी बेटी बैठी थीं, जिनकी बम विस्फोट में मौत हो गई। गुलामी की बंजर छाती पर भारतीय युवकों की स्वतंत्र चेतना का यह प्रथम बम प्रयोग था। इस केस में १९ वर्’ाीय खुदीराम बोस को फाँसी हो गयी तथा प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली। इससे पूर्व अंग्रेज सरकार द्वारा मिदनापुर में आयोजित प्रदर्”ानी के दौरान खुदीराम बोस द्वारा ‘वन्देमातरम्’ का उद्घो’ा करने पर मुकदमा चलाया गया था पर कोई गवाह न मिलने पर अन्तत: खुदीराम बोस को बरी करना पड़ा। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के अप्रतिम बलिदान से प्रेरित होकर एक अन्य क्रान्तिवीर यतीन्द्र नाथ मुखर्जी, जिन्हें एक बार जंगल में खूँखार बाघ से निहत्थे जूझकर बहादुरी का परिचय देने के कारण ‘यतीन बाधा’ कहा गया, ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गये। यतीन बाघा में नेतृत्व की अपूर्व क्षमता देखकर ही अरविन्द घो’ा ने अपने क्रान्तिकारी ”िा’यों से कहा था कि - "यतीन बाघा को अपना नेता मानो।" १ जुलाई १९०९ को मदनलाल ढींगरा ने भारत सचिव के सहायक कर्नल विलियम कर्जन वाइली को लन्दन में गोली मार दी तो दिल्ली को राजधानी बनाने की घो’ाणा प”चात एक ज”न के दौरान दिसम्बर १९१२ में वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज पर एक जुलूस में दिल्ली में बम फेंका गया, जिसमें वह घायल हो गया। बनारस में जन्मे “ाचीन्द्र नाथ ने १९०८ में क्रान्तिकारियों के हाथ मजबूत करने के लिए ‘यंग मैंस एसोसिए”ान’ संस्था का गठन किया, जिससे तमाम नवयुवक जुड़े। “ाचीन्द्र नाथ ने बनारस में ‘गदर पार्टी’ की गतिविधियों का भी संचालन किया। इस हेतु १९१५ में उन्हें आजीवन कारावास सुनाया गया और बाद में दो बार अण्डमान जेल भी भेजा गया। जेल में ‘बन्दी जीवन’ आत्मकथा लिखकर उन्होंने क्रान्तिकारियों को प्रेरणा दी। १९१९ के जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड को Åधमसिंह कभी नहीं भुला पाये और लन्दन के इण्डिया हाउस में ३१ मार्च १९४० को एक वि”ााल सभा के दौरान इस हत्याकाण्ड के कर्ताधर्ता माइकल ओ डायर पर गोली दाग दी और वहाँ से भागने की बजाय सीना तानकर कहा कि- "माइकल ओ डायर को मैंने मारा है।"


क्रान्तिकारी गतिविधियों की यह घटनायें सिर्फ भारत की भूमि तक ही सीमित नहीं रहीं बल्कि विदे”ाों में भी अपनी जड़ें फैला रही थीं। “यामजी Ñ’ण वर्मा ने लन्दन में १९०५ में ‘भारत स्व”ाासन समिति’ का गठन किया तो लाल हरदयाल ने बर्लिन में ‘भारतीय स्वतंत्रता समिति’ का गठन किया। १नवम्बर १९१३ को अमरीका के सानÝांसिसको नगर में लाल हरदयाल द्वारा ‘गदर पार्टी’ का गठन किया गया, जिसने भारत में आजादी की खातिर तमाम अप्रवासियों को भर्ती किया। सोहन सिंह भाक्खना इसके प्रथम अध्यक्ष व लाल हरदयाल इसके प्रथम मंत्री चुने गये। ‘गदर’ पत्र के माध्यम से गदर दल ने एक विज्ञापन दिया कि -"भारत में विद्रोह फैलाने हेतु बहादुर सिपाहियों की आव”यकता है। तनख्वाह-मौत, इनाम-“ाहादत, पें”ान-आजादी, लड़ाई का मैदान-भारत।’ गदर पार्टी की गतिविधियों का विस्तार भारत में भी करने के प्रयत्न हुये। ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत को अमेरिका व कनाडा से सिक्खों के भारत आगमन पर चिन्ता हुई और २९ अगस्त १९१४ को एक अध्यादे”ा पारित कर किसी के भी भारत आगमन को अवैध घो’िात करने की अंग्रेजी हुकूमत को छूट दी गयी। इसी क्रम में ३५१ यात्रियों के साथ कोमागाटामारू नामक जलयान जब २६ सितम्बर १९१४ को हुगली पहुँचा तो उन्हें उक्त अध्यादे”ा के तहत्् रोकने की को”िा”ा की गयी और विरोध करने पर १८ यात्री मार दिये गये व २५ घायल हुये। ऐसे में पंजाब को गदरवादियों का केन्द्र बनने में देरी नहीं लगी और सम्पूर्ण भारत में एक दिन २१ फरवरी १९१५ को एक साथ विद्रोह की योजना बनाई गई पर अंग्रेजी हुकूमत को पूर्व सूचना लग जाने के कारण यह योजना विफल रही। क्रान्ति की इस लहर पर वी०डी०सावरकर, मैडम भीकाजी कामा, अजीत सिंह इत्यादि ने विदे”ाों में घूम-घूम कर भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाने की को”िा”ा की। काबुल में राजा महेन्द्र प्रताप ने भारत की आजादी के लिए एक अस्थायी सरकार की स्थापना की।


प्रारम्भ में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ व्यक्तिगत साहस व प्रदर्”ान तक ही सीमित थीं पर १९२४ के बाद क्रान्तिकारी संगठित होने लगे। ये व्यक्तिगत साहस की बजाय सरकारी धन अथवा “ास्त्रागार को लूटकर अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष चुनौती उत्पन्न करते थे। ये क्रान्तिकारी जहाँ अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करना चाहते थे वहीं लोगों में रा’ट्रवाद की भावना भी पैदा किया। अभी तक क्रान्तिकारी विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न संगठनों के माध्यम से सक्रिय थे, मसलन बंगाल व बिहार में ‘अनु”ाीलन’ व ‘युगान्तर’ समितियाँ तो उत्तर प्रदे”ा में हिन्दुस्तान प्रजातंत्र सेना‘ व ‘बनारस रेवोल्यू”ानरी पार्टी’ । १९२४ में समस्त क्रान्तिकारी दलों के ‘कानपुर सम्मेलन’ के फलस्वरूप १९२८ में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिए”ान’ का गठन किया गया। ८-९ सितम्बर १९२८ को फिरोज”ााह किले के खण्डहरों में हुई इस बैठक में पंजाब से सुखदेव व भगतसिंह, राजपूताना से कुन्दनलाल, युक्तप्रान्त से ”िाव वर्मा, ब्रãदत्त मिश्र, जयदेव कपूर, विजय कुमार सिन्हा, सुरेन्द्र नाथ पाण्डे और बिहार से फणीन्द्र नाथ घो’ा व मनमोहन बनर्जी “ाामिल हुये थे। चन्द्र”ोखर आजाद इस बैठक में “ाामिल न हो सके, पर भगतसिंह व ”िाव वर्मा को उन्होंने पहले ही आ”वासन दे दिया था कि बहुमत से लिये गये फैसले उन्हें स्वीकार्य होंगे। दिल्ली की इस बैठक में स”ास्त्र क्रान्तिकारी प्रयत्नों के लिये अन्तर प्रान्तीय आधार बनाया गया और कालान्तर में इसमें भगतसिंह व सुखदेव की पहल एवं ”िाव वर्मा, विजय कुमार सिन्हा व सुरेन्द्र पाण्डे इत्यादि के अनुमोदन से ‘सो”ालिस्ट’ “ाब्द जोड़कर ‘हिन्दुस्तान सो”ालिस्ट रिपब्लिक एसोसिए”ान’ में परिवर्तित कर दिया गया। चन्द्र”ोखर आजाद इसके पहले सेनापति बने। इसी दौर में रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण बोहरा, बटुके”वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रो”ान सिंह, अ”ाफाक उल्ला खान, “ाचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारी भी तेजी से उभरकर सामने आये। उत्तर प्रदे”ा के “ााहजहाँपुर में जन्मे रामप्रसाद बिस्मिल लखनÅ में रहने के दौरान क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये और जल्द ही उनको क्रान्तिकारियों की कठिनाईयों, हथियारों का अभाव व आर्थिक तंगी से दो-चार होना पड़ा। "सरफरो”ाी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है"- पंक्तियाँ गुनगुनाने वाले रामप्रसाद बिस्मिल ने लोगों को जागृत करने हेतु ‘अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ तथा ‘दे”ावासियों के नाम सन्दे”ा’ नामक एक पर्चा छपवाया, परन्तु “ाीघ्र ही दोनों अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त कर लिये गये। तत्प”चात् बिस्मिल ने ‘बोल्”ोविकों की करतूत’, ‘मन की लहर’, ‘स्वेद”ाी रंग’ व ‘क्रान्तिकारी जीवन’ पुस्तकें लिखीं परन्तु इससे न तो क्रान्तिकारियों की आर्थिक तंगी कम हुई और न ही हथियार प्राप्त हुये। ऐसे में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों की पहली महत्वपूर्ण घटना ‘काकोरी काण्ड’ की योजना बनी। ९ अगस्त १९२५ को सहारनपुर से लखनÅ की ओर जा रहे सरकारी खजाने को रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी नामक स्टे”ान पर ट्रेन से लूट लिया गया। यह घटना उस समय हुयी जब कि उस ट्रेन में १४ बन्दूकधारी व्यक्ति थे और दो स”ास्त्र फौजी अंग्रेज भी थे। क्रान्तिकारियों के हिसाब से यह एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिससे उनकी धन की समस्या काफी हद तक दूर हो गयी। इस केस में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रो”ान सिंह व अ”ाफाक उल्ला खान को १९ दिसम्बर १९२७ को फाँसी तो “ाचीन्द्र नाथ को आजीवन कारावास की सजा हुई। अ”ाफाक उल्ला खान सम्भवत: प्रथम भारतीय क्रान्तिकारी मुसलमान थे, जो कि आजादी के लिये फाँसी के तख्ते पर लटक गये। अ”ाफाक उल्ला खान ने ही अपने बलि’ठ हाथों द्वारा खजाने वाला बाक्स तोड़ा था। काकोरी केस में ही मन्मथनाथ गुप्त को १४ साल की कैद हुई। यद्यपि काकोरी केस में चन्द्र”ोखर आजाद भी “ाामिल थे, पर वे अंग्रेजी हुकूमत के हाथ नहीं आये। आजाद के Åपर अंग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तारी के लिये पुरस्कारों तक की घो’ाणा की थी। इस बीच भगत सिंह ने १९२६ में छबील दास व य”ापाल से मिलकर ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की और इसके प्रथम सचिव बने। कहते हैं कि भगत सिंह जब १० वर्’ा के थे तो उनके बाबा ने उन्हें खिलौने वाली बन्दूक लाकर दी और भगत सिंह उसे लेकर खेत में बोने लगे। जब बाबा ने इसका कारण पूछा तो भगत सिंह ने कहा कि इससे तमाम बन्दूकें उगकर पैदा होंगीं जिसका उपयोग दे”ा को आजाद कराने के लिए किया जायेगा। १९२७ में साइमन कमी”ान के विरुद्ध प्रदर्”ान करने पर लाला लाजपत राय के Åपर लाठी चार्ज व तत्प”चात उनकी मौत को क्रान्तिकारियों ने रा’ट्रीय अपमान के रूप में लिया और उनके मासिक श्राद्ध पर लाठी चार्ज करने वाले लाहौर के सहायक पुलिस कप्तान साण्डर्स को १७ दिसम्बर १९२८ को भगत सिंह, चन्द्र”ोखर व राजगुरु ने खत्म कर दिया। अंग्रेजी हुकूमत इन क्रान्तिकारियों के पीछे दौड़ती रही पर वे तो आजादी का कफन बांधकर निकल चुके थे।


भगत सिंह ने बटुके”वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में ८ अप्रैल १९२९ को खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि-"बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।" बम फेंक कर भगत सिंह भाग सकते थे पर ऐसा करने की बजाय उन्होंने गिरफ्तार होना उचित समझा। विधान सभा में बम मारने हेतु फाँसी नहीं दी जा सकती, अत: अंग्रेजी हुकूमत ने इस काण्ड को ‘साण्डर्स हत्याकाण्ड’ से जोड़ दिया एवं २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह सुखदेव व राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया। राजगुरु के बारे में प्रसिद्ध है कि जब वे क्रान्तिकारी गतिविधियों की ओर प्रवृत्त हुये तो एक बार उन्होंने जलती आग में लोहे की छड़ गर्म करके अपनी छाती पर तीन सीधी लाइनें खींचकर अपने को दाग लिया। जब भगतसिंह व आजाद ने उनसे इसका कारण पूछा तो बेबाकी से बोले-"मैं तो अपने को आजमाकर देखना चाहता था कि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा पकड़े जाने पर यातनायें सहने की हिम्मत मुझमें है या नहीं।" चन्द्र”ोखर आजाद ने इस बीच क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जारी रखीं और ९ जून १९३१ को जब इलाहाबाद के अल्Ýेड पार्क में बैठे वे किसी का इन्तजार कर रहे थे तो मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया और फायरिंग आरम्भ कर दी। चूँकि चन्द्र”ोखर आजाद ‘आजाद’ रहने की कसम उठा चुके थे सो अन्तिम गोली स्वयं को मारकर सदा के लिए “ाहीद हो गये। बताते हैं कि आजाद की मौत के बाद भी पुलिस उनके करीब जाने का साहस नहीं जुटा सकी और उसके बाद भी उन पर फायरिंग की। इस बीच प्रमुख क्रान्तिकारी जतीनदास अंग्रेजी हुकूमत के अन्यायों के विरुद्ध ६३ दिन की भूख हड़ताल प”चात दिसम्बर १९३१ में “ाहीद हो गये। अप्रैल १९३० में पूर्वी बंगाल में चटगाँव के क्रान्तिकारियों ने सूर्यसेन के नेतृत्व में “ास्त्रागार पर धावा बोलकर वन्देमातरम् का उद्घो’ा करते हुये चटगाँव की मुक्ति की घो’ाणा कर दी। कई दिनों तक चटगाँव क्रान्तिकारियों के कब्जे में रहा पर अन्तत: सूर्यसेन को वि”वासघात करके पकड़ लिया गया और १९३३ में फाँसी दे दी गयी। चटगाँव आन्दोलन के दौरान पहली बार युवा महिलाओं ने क्रान्तिकारी आन्दोलनों में स्वयं भाग लिया, जिसमें प्रीतिलता वाडेयर व कल्पना दत्त के नाम प्रमुख हैं।


सुभा’ा चन्द्र बोस ने द्वितीय वि”व युद्ध के दौरान क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रियता से भाग लिया। भगतसिंह को फांँसी लगने पर उन्होंने सम्पूर्ण दे”ा का दौरा कर दे”ा के नवयुवकों में नवचेतना जगायी। वे दो बार कांग्रेस अध्यक्ष भी चुने गये। दे”ा भक्ति की भावना के चलते ही उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने के अगले ही वर्’ा त्याग पत्र दे दिया। उचित अवसर पाकर वे १९४१ में अंग्रेजी हुकूमत को चकमा देकर भारत से बाहर निकल गये और तमाम रा’ट्राध्यक्षों से भारत की स्वाधीनता के सन्दर्भ में वार्ता किया। २ जुलाई १९४३ को सिंगापुर में सुभा’ा चन्द्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया और ५ जुलाई १९४३ को ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग’ का अध्यक्ष व तदोपरान्त अक्टूबर १९४३ में आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति का पद सँभाला। ‘नेता जी’ के नाम से प्रसिद्ध सुभा’ा चन्द्र बोस ने आजाद भारत की स्थाई सरकार की घो’ाणा करते हुये उद्घो’ा किया कि- "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।" उन्होंने ‘जय हिन्द’ का नारा दिया। उनकी अस्थाई सरकार को जापान, जर्मनी, इटली, चीन, बर्मा, फिलिपिन्स व आयरलैंण्ड ने मान्यता दी। जापान ने ८ नवम्बर १९४३ को बोस को अण्डमान और निकोबार द्वीप भी सौंप दिये। सुभा’ा चन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कराने के लिए अथक प्रयास किये और ब्रिटि”ा सेना को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दिया। सुभा’ा चन्द्र बोस ने दे”ा भक्ति और रा’ट्रीयता की जो भावना पैदा की उसने उन्हें वि”व के प्रथम श्रेणी के नेताओं में लाकर खड़ा कर दिया।


भारत छोड़ो आन्दोलन ने अंग्रेजों को दे”ा छोड़ने के लिए मजबूर करने में अन्तिम कील ठोंकी। यह एक ऐसा वृहद आन्दोलन था जिसमें तीन पीढ़ियों मसलन, स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों, वि”वविद्यालय के नौजवानों और अनुभवी राजनीतिज्ञों ने सामूहिक रूप से समवेत स्वर में आवाज उठायी और नेतृत्व किया। इस आन्दोलन का अंदाजा लार्ड लिनलिथगो द्वारा ब्रिटि”ा प्रधानमंत्री चर्चिल को लिखे पत्र से लगाया जा सकता है -"मैं यहाँ १८५७ के विद्रोह के बाद बहुत गंभीर विद्रोह से जूझ रहा हूँ। इसकी गहनता और विस्तार को मैंने सैनिक सुरक्षा की दृ’िट से वि”व से अब तक छिपाया है।"


रा’ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान क्रान्तिकारी गतिविधियाँ अपने चरम पर रहीं और दे”ा की युवा पीढ़ी को इस धारा ने काफी प्रभावित किया। यद्यपि कुछेक विचारकों ने क्रान्तिकारियों द्वारा अपनायी गयी हिंसक गतिविधियों को उचित नहीं ठहराया है पर यह भी सच्चाई है कि हिंसा और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हिंसा व अहिंसा का कोई निरपेक्ष पैमाना नहीं हो सकता बल्कि यह परिस्थितियों की गम्भीरता पर निर्भर करता है। साण्डर्स को खत्म करने के बाद एक पर्चे में लिखे “ाब्दों से क्रान्तिकारियों की भावनाओं को समझा जा सकता है-"मनु’य का रक्त बहाने के लिए हमें खेद है परन्तु क्रान्ति की बलिवेदी पर रक्त बहाना अनिवार्य हो जाता है। हमारा उद्दे”य आतंक फैलाना नहीं बल्कि ऐसी क्रान्ति से है जो मनु’य द्वारा मनु’य के “ाो’ाण का अन्त कर देगी।" इसमें कोई “ाक नहीं कि क्रान्तिकारी गतिविधियों में तमाम लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी और इतिहास के पन्नों में अमर हो गये। भारत की स्वतंत्रता में तमाम धाराओं ने समानान्तर रूप से अपनी भूमिका निभायी और उनमें क्रान्तिकारी आन्दोलनों व गतिविधियों का प्रमुख स्थान है- "“शहीदों  की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ  होगा।"

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4 comments:

Unknown ने कहा… 3 मई 2010 को 4:01 pm बजे

बौद्धिक गुलाम हिन्दूओं की आंखें खोल देने वाला लेख लिखने पर बधाई

Smart Indian ने कहा… 4 मई 2010 को 2:41 am बजे

बहुत सुन्दर आलेख. धन्यवाद!

संजय @ मो सम कौन... ने कहा… 4 मई 2010 को 5:40 am बजे

बहुत अच्छा लगा स्वाधीनता की लड़ाई में क्रांतिकारियों के योगदान को याद करना।
नहीं तो सरकारी किताबों में तो आजादी लाने वाले दो ही शख्स थे, बाकी सब जैसे आतंकवादी।
इन और इन जैसे आजादी के और बहुत से unsung heroes को सलाम।

बेनामी ने कहा… 6 मई 2010 को 11:57 am बजे

कोई भी उत्सव आजादी के दीवानों के बिना अधूरा है. अमित जी ने उस कमी को पूरा कर दिया..साधुवाद !!

 
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