नाम है अमिताभ. तख़ल्लुस "मीत". शुरुआती दौर में ये टाईम्स   ऑफ़  इंडिया  में फोटो  जर्नलिस्ट   के तौर पे काम किया . फिर  ऐड एजेंसी  में ऑल राउन्दर   की हैसियत से ... जहां ये फ़ोटो ग्राफ़ी, कॉपी  राइटिंग   जैसे काम करते थे . इन्हें फोटोग्राफी  का शौक़ बचपन से रहा .... कुछ एक प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया और दो बार पुरस्कृत भी हुए  .... एक बार Agfa All India Amateur Photography Competition   में इन्हें दूसरा पुरस्कार मिला और एक बार उसी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. आलकल ये  Steel Authority of India Limited (SAIL) में काम कर रहे हैं  ..... SAIL की नौकरी के दौरान रांची, भिलाई में रहे  और अब पिछले ११ साल से कलकत्ता में हैं . "किस से कहें ?" इनका महत्वपूर्ण हिंदी ब्लॉग है प्रस्तुत है इनकी दो कविताएँ -













(1)
तुझे बुत कहूँ कि ख़ुदा कहूँ


तू नज़र में भी, तू निहाँ भी है 

तुझे बुत कहूँ कि ख़ुदा कहूँ
तू ही आरज़ू, तू ही मुद्द'आ

सपना कहूँ, कि दुआ कहूँ

मेरे रात दिन, शाम-ओ-सहर

हैं तेरी नज़र से मो'तबर

रहूँ उन में क़ैद, तो ज़िन्दगी
जो रिहा हुआ तो क़ज़ा कहूँ



तेरी जुस्तजू, मेरी हर ख़ुशी

तू ही हर्फ़-ए-हक़ तू ही बंदगी

तेरा नाम ख़ुद पे अयाँ है जब

तुझे कैसे अपना ख़ुदा कहूँ



ये जो मौत है, है जो ज़िन्दगी

ये जो हश्र है, है जो हर घड़ी

तेरी इक निगाह, जो निगाह तो है

जो ये सच भी हो, तो वफ़ा कहूँ



है हिज्र क्या, है विसाल क्या

है ज़ुबाँ तेरी, कि ये जब फिरी

कोई बन गया, कोई मिट गया

कोई ये कहे, "मैं अदा कहूँ" !!



है गुनाह क्या, है सवाब क्या

तेरा हिज्र, तेरा विसाल क्या

है तेरी रज़ा, तो है ज़िन्दगी

तू ही ये बता, कि मैं क्या कहूँ

कुछ मैं कहूँ, कुछ तुम कहो

कभी ये रहे कभी वो रहे

कभी ये भी हो कुछ मैं कहूँ

और तू कहे "अब क्या कहूं"



तुझे अपने नाज़ पे नाज़ है
मुझे अपनी वफ़ा से वफ़ा सही

प' न दिन हो कोई, कोई कहे

कि मैं तुझ को बुरा-भला कहूँ



चलो तुझ को अपनी ज़ुबान हो

चलो मुझ को मेरी क़ज़ा सही

चलो तुझ को मेरी क़ज़ा ही हो

कि मैं जिस को अपना ख़ुदा कहूँ



"मेरा शौक़ है कि मैं रात दिन

ये कहा करुँ, वो किया करुँ

मेरे हर्फ़ ही मेरी शान है

मैं करुँ जफा ओ वफ़ा कहूँ "



मैं ने ये कहा कि वो दोस्त है

मैं नें ये कहा कि तू प्यार है

मैं लाख कुछ भी कहा करूं

प' मैं हक़ तो उन का अदा करुँ !!





निहां = गुप्त, छिपा हुआ

मुद्द'आ = अर्थ, आशय

मो'तबर = जिस का ऐतबार हो, विश्वस्त

क़ज़ा = मृत्यु

हर्फ़-ए-हक़ = सच्चाई, ख़ुदा

अयाँ = स्पष्ट, ज़ाहिर

सवाब = पुण्य
(2)

ख़ामोशी



बढ़ा दो और ख़ामोशी की वुसअत

मेरे कानों में बजने दो ख़ामोशी

ये आवाजों की है सौगा़त मुझ को

उफ़क़ पर आज सजने दो ख़ामोशी



कि दिल की बात जब हो कुफ़्र ठहरी

तो सीने में सुलगने दो ख़ामोशी

बहुत हो बेबसी तो ढल रहेंगे

अब आंखों में लरज़ने दो ख़ामोशी



यही इस दौर की है देन हम को

ज़ुबाँ पे हर्फ़-ए-हक़ जब भी मिलेगा

किसी सूरत, किसी का नाम ले कर

ज़माना इक नया इल्ज़ाम दे कर

हज़ारों वास्तों का वास्ता दे

तुम्हारी हर सदा दफ़ना ही देगा

पेशतर, बात अपनी कह सको तुम

नया कोई कहर बरपा ही देगा



करो हो बात याँ पर प्यार की तुम

तिजारत नफ़रतों की हो जहाँ पर

ये अच्छी दिल्लगी तुम ने निकाली

चले हो इश्क का अरमाँ सजा कर



जो जीना हो सुकूँ से "मीत जी" तो

दगा़-ओ-कीनः इस दिल में बसाओ

खड़े हो आ के जिस बाज़ार में तुम

कुछ उस की धुन में अब नग़्मे सुनाओ



अगर ये काम कुछ मुश्किल लगे तो

ज़ुबाँ पर फिर तड़पने दो ख़ामोशी

बड़े इख़लास की मूरत बने थे

रहो अब तन्हा, सजने दो ख़ामोशी



वुसअत = विस्तार

उफ़क़ = क्षितिज

हर्फ़-ए-हक़ = सच्चाई, स्वत्व, अधिकार की बात

पेशतर = इस से पहले

तिजारत = व्यापार

कीनः = द्वेष

इख़लास = निश्छलता

पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
() () ()

2 comments:

प्रज्ञा पांडेय ने कहा… 24 मई 2010 को 8:53 pm बजे

आपने बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही .. नाज़ुक नर्म मुलायम एहसासों से सज गया है हर हर्फ़ ...बहुत खूब !!!

 
Top