राकेश खंडेलवाल का जन्म १८ मई १९५३ को भरतपुर ( राजस्थान ) में हुआ और प्राथमिक शिक्षा भी भरतपुर में ही हुई। इन्हें घर में उपलब्ध कल्याण के सभी पुराण और विशेषांकों से पढ़ने का व्यसन प्रारंभ से ही लग गया था। भरतपुर की हिन्दी साहित्य समिति में उपलब्ध हज़ारों पुस्तकों ने दिशा निर्देशन दिया और लगभग १२-१३ वर्ष की उम्र में इन्होंने पहली कविता लिखी। भरतपुर की हिन्दी साहित्य समिति हर मास के अंतिम शनिवार को एक कवि सम्मेलन का आयोजन करती थी। वहीं से कविता लिखने का शौक बढ़ता चला गया और आज तक जारी है। इनकी "अमावस का चाँद" शीर्षक से एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। गीत कलश इनका प्रमुख व्यक्तिगत ब्लॉग है।.प्रस्तुत है इनके कुछ गीत -

!! दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा !!

एक परिशिष्ट में सब समाहित हुए
शब्द जितने लिखे भूमिका के लिये
फ़्रेम ईजिल का सारे उन्हें पी गया
रंग जो थे सजे तूलिका के लिये

स्वप्न की बाँसुरी, नींद के तीर पर
इक नये राग में गुनगुनाती रही
बाँकुरी आस अपने शिरस्त्राण पर
खौर केसर का रह रह लगाती रही
चाँदनी की किरण की कमन्दें बना
चाह चलती रही चाँद के द्वार तक
कल्पना का क्षितिज संकुचित हो गया
वीथिका के न जा पाया उस पार तक

धूप की धूम्र उनको निगलती गई
थाल जितने सजे अर्चना के लिये
सरगमों ने किये कैद स्वर से सभी
बोल जितने उठे प्रार्थना के लिये

दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा
रात अटकी रही दीप की लौ तले
सांझ कोटर में दुबकी हुई रह गई
कोई ढूँढ़े तो उसका पता न चले
पाखियों के परों की हवायें पकड़

जागते ही उठी भोर चलने लगी
दोपहर छान की ओर बढ़ती हुई
सीढियाँ चढ़ते चढ़ते उतरने लगी

व्याकरण ने नकारे सभी चिन्ह जो
सज के आये कभी मात्रा के लिये
एक बासी थकन बेड़ियाँ बन गई
पांव जब भी उठे यात्रा के लिये

बोतलों से खुली, इत्र सी उड़ गई
चांदनी की शपथ,राह के साथ की
पीर सुलगी अगरबत्तियों की तरह
होंठ पर रह गई अनकही बात सी
चाह थी ज़िंदगी गीत हो प्रेम का
एक आधी लिखी सी ग़ज़ल रह गई
छंद की डोलियाँ अब न आती इधर
ये उजडती हुई वेदियाँ कह गईं

सीपियाँ मोतियों में बदल न सकीं
नीर कण जो सजे भावना के लिये
जिसमें रक्खे उसी पात्र में घुल गए
पुष्प जितने चुने साधना के लिये
 
!! वाणी ने कर दिया समर्पण !!
 
व्यक्त नहीं हो सकी ह्रदय की भाषा जब कोरे शब्दों में
हुआ विजेता मौन और फिर वाणी ने कर दिया समर्पण

दॄष्टि हो गई एक बार ही नयनों से मिल कर सम्मोहित
और चेतना साथ छोड़ कर हुई एक तन्द्रा में बन्दी
चित्रलिखित रह गया पूर्ण अस्तित्व एक अनजाने पल में
बांध गई अपने पाशों में उड़ कर एक सुरभि मकरन्दी

वशीकरण, मोहन, सम्मोहन, सुधियों पर अधिकार जमाये
समझ नहीं पाया भोला मन, जाने है कैसा आकर्षण

गिरा अनयन, नयन वाणी बिन, बाबा तुलसी ने बतलाया
पढ़ा बहुत था किन्तु आज ही आया पूरा अर्थ समझ में
जिव्हा जड़, पथराये नयना, हुए अवाक अधर को लेकर
खड़ी देह बन कर प्रतिमा इक, शेष न बाकी कुछ भी बस में

संचय की हर निधि अनजाने अपने आप उमड़ कर आई
होने लगा स्वत: ही सब कुछ, एक शिल्प के सम्मुख अर्पण

आने लगे याद सारे ही थे सन्दर्भ पुरातन, नूतन
कथा,गल्प,श्रुतियां, कवितायें पढ़ी हुई ग्रन्ठों की बातें
यमुना का तट, धनुर्भंग वे पावन आश्रम ॠषि मुनियों के
नहीं न्याय कर पाये उससे, मिली ह्रदय को जो सौगातें

खींची हैं मस्तक पर कैसी, भाग्य विधाता ने रेखायें
उनका अवलोकन करने को देख रहा रह रह कर दर्पण
() () ()
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2 comments:

पूर्णिमा ने कहा… 24 मई 2010 को 11:30 am बजे

भावपूर्ण और सार्थक सन्दर्भों से युक्त

Himanshu Pandey ने कहा… 27 मई 2010 को 10:38 pm बजे

राकेश जी के गीत ब्लॉग जगत को पर्याप्त साहित्यिक समृद्धि प्रदान करते हैं ! मैं कई बार इन गीतों को पढ़कर साहित्य की उत्कृष्टता का ब्लॉग पर दिग्दर्शन करता हूँ..आश्वस्त होता हूँ !
प्रस्तुति का आभार ।

 
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