२०वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता-संग्रह " रास्ते के बीच" से चर्चित हो जाने वाले आज के सुप्रतिष्ठित हिन्दी-कवि दिविक रमेश  बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। ३८ वर्ष की आयु में ही " रास्ते के बीच" और " खुली आंखों में आकाश" जैसी अपनी मौलिक साहित्यिक कृतियों पर सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड जैसा अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले ये पहले कवि हैं। १७-१८ वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया। १९९४ से १९९७ में भारत सरकार की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए जहाँ इन्होंने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कितने ही कीर्तिमान स्थापित किए। वहाँ के जन-जीवन और वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहरा परिचय लेने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप ऐतिहासिक रूप में, कोरियाई भाषा में अनूदित-प्रकाशत हिन्दी कविता के पहले संग्रह के रूप में इनकी अपनी कविताओं का संग्रह "से दल अइ ग्योल हान" अर्थात् चिड़िया का ब्याह है। इसी प्रकार साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित इनके द्वारा चयनित और हिन्दी में अनूदित कोरियाई प्राचीन और आधुनिक कविताओं का संग्रह "कोरियाई कविता-यात्रा" भी ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा में अपने ढंग का पहला संग्रह है। साथ ही इन्हीं के द्वारा तैयार किए गए कोरियाई बाल कविताओं और कोरियाई लोक कथाओं के संग्रह भी ऐतिहासिक दृष्टि से पहले हैं। प्रस्तुत है इनकी दो कविताएँ-

प्रिय भाई! प्रिय आलोचक!

एक आवाज़ है, बहुत सधी, लेकिन मौन
पूछती सी
कौन?

एक प्रश्न है यही
बहुत सरल नहीं जिसका उत्तर
अगर देना पड़े खुद
अपने संदर्भ में, और वह भी ईमानदारी से।

समझ यह भी आता है
कि बहुत आसान होता है
व्याख्यायित करना अपने से इतर को
कि वह पेड़ है कि वह जड़ है
कि वह वह है कि वह वह है
और यह भी कि वह ऐसा है और वह वैसा है।

और जो वह और वह भी
होता / नहीं होता हमारी निगाह में
अक्सर वही कुछ होने का
हम करते हैं दावा / या नहीं करते।

और यूँ जाने अनजाने
दे बैठते हैं एक गलत उत्तर
अक्सर।

कुछ समझे
प्रिय भाई
प्रिय आलोचक!

एक बची हुई खुशी

एक बची खुची खुशी को थैले में डाल
जब लौटता है वह उसके सहारे
तो ज़िन्दगी का अगला दिन
पाट देता है उसकी रात रंगीन सपनों से
- सपने जो अधूरी आंकांक्षाओं की पूर्ति ही नहीं
एक संकल्पित भविष्य भी होते हैं।

समझौते पर विवश आदमी से
बस इतनी ही प्रार्थना है मेरी
कि बचे न बचे कुछ
पर बची रहे हर शाम उसके पास
एक थोड़ी-सी खुशी - उसका सहारा
जिसे थैले में डाल
लौट सके वह घर डग भरता
उत्सुक

कि बचे रहें उसके पास भी कुछ सपने
कि बीते न उसकी रात सूनी आँखों में।
() दिविक रमेश
http://divikramesh.blogspot.com/
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4 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा… 31 मई 2010 को 5:41 pm बजे

अरे वाह, दिविक जी की रचनाएँ देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई।

चैन सिंह शेखावत ने कहा… 1 जून 2010 को 10:13 am बजे

bahut khoob,
prabhavi shaili aur prabhavshali kathya.

Smart Indian ने कहा… 3 जून 2010 को 8:00 am बजे

दिविक जी की रचनाओं के लिए धन्यवाद!

 
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